‘सालों पहले जूनागढ़ के नवाब रेलवे लाइन बिछाने, भारी काम करवाने के लिए हमारे पूर्वजों को अफ्रीका से लेकर आए थे। मैं पैदा हुई तो मां की मौत हो गई। 12 साल की थी, तब पापा कैंसर से चल बसे। दादा-दादी ने जैसे-तैसे मुझे पाला। पत्थरों की दीवार बनाकर, उस पर मिट्टी का लेप लगाकर, लकड़ी डालकर रहती थी।
जंगल से लकड़ी काटकर लाती, उसे बाजार में बेचने पर 5 पैसे मिलते। इससे घर का खर्च चलता था। हमारी सिद्दी कम्युनिटी को तो पता भी नहीं था कि पद्मश्री अवॉर्ड होता क्या है। सलवार-सूट और दुपट्टा ओढ़कर राष्ट्रपति भवन अवॉर्ड लेने पहुंची तो झोली फैलाकर PM मोदी को दुआएं दीं। मेरे लिए सभी प्रोटोकॉल टूट गए। राष्ट्रपति को छू कर, कंधे पर हाथ रखकर फोटो खिंचवाई।'
गुजरात के सोमनाथ जिले से 35 किलोमीटर दूर तलाला तहसील का जांबुर गांव। दो नदियों के बीच सिद्दी कम्युनिटी के 400 घर हैं और आबादी करीब 4 हजार। दोनों नदियां सूख गई हैं, जिसे यहां के लोग सरस्वती और करकरी नदी बताते हैं।
इसी गांव में एक घर है 70 साल की हीरबाई इब्राहिम लोबी का, जो पद्मश्री अवॉर्ड और राष्ट्रपति के साथ अपनी फोटो दिखा रही हैं। उन्हें सिद्दी कम्युनिटी के बच्चों और महिलाओं के जीवन में बदलाव लाने और घर-घर एजुकेशन की अलख जगाने के लिए यह अवॉर्ड मिला है। हीरबाई ने सिद्दी कम्युनिटी के 19 गांवों में ये काम किया है। हीरबाई से बातचीत शुरू होती है। उनकी पोती नरगिस गुजराती से हिंदी में ट्रांसलेट करके मुझे बता रही हैं। नरगिस अभी ग्रेजुएशन कर रही हैं।
ये हीरबाई इब्राहिम लोबी हैं, जो राष्ट्रपति के साथ खुद की तस्वीर को देख रही हैं, साथ में उनकी पोती नगरिस है।
हीरबाई हंसते हुए कहती हैं, ‘हमें न तो पद्मश्री के बारे में पता था, न प्रोटोकॉल के बारे में। अवॉर्ड लेने गई, तो बेटे और अधिकारियों ने समझाया कि राष्ट्रपति को नहीं छूना है। छोटी-सी कम्युनिटी और इस गांव की बेटी को राष्ट्रपति भवन में सम्मानित किया जाएगा, मैंने कभी सोचा नहीं था। कुछ महीने पहले की ही बात है। जब पोती ने बताया कि पद्मश्री अवॉर्ड के लिए नॉमिनेट हुई हूं, तो यकीन नहीं हुआ।
अवॉर्ड लेने के लिए गई, तो बेटे ने नया कपड़ा सिलवाने के लिए कहा, लेकिन मैंने मना कर दिया। 70 साल से ऐसे ही रही हूं। आज तक कभी काजल भी नहीं लगाया, मुंह में पाउडर, क्रीम... कुछ नहीं। इसलिए जैसे रहती हूं, वैसे ही माथे पर पुराना दुपट्टा ओढ़े, सलवार-सूट पहने राष्ट्रपति से अवॉर्ड लेने पहुंची।
राष्ट्रपति भवन तालियों से गूंज रहा था। PM मोदी के सामने से गुजरी, तो मैंने उन्हें झोली फैलाकर दुआएं दीं। बोली- तू ऐसे ही सलामत रहे...। जब राष्ट्रपति के पास पहुंची, तो अवॉर्ड लेने से पहले उन्हें छूना चाहती थी। वो मेरे सीने पर पद्मश्री अवॉर्ड लगा रहीं थीं, मैं उनके सिर, हाथ, कंधे को छू रही थी। जी कर रहा था उन्हें चूम लूं। फिर मैंने राष्ट्रपति से कहा- आप राष्ट्रपति हैं, फिर भी हमारी बहन हैं। आदिवासी समाज से हैं।'
हीरबाई राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से पद्मश्री अवॉर्ड ले रही हैं।
हीरबाई लोबी चलने-फिरने में असमर्थ हैं। इन दिनों घुटनों के दर्द से जूझ रही हैं। कहीं आने-जाने के लिए उन्हें किसी सहारे की जरूरत होती है। उनके आंगन में कुछ बच्चे खेल रहे हैं। हीरबाई कहती हैं, 'मैंने इन बच्चों की जिंदगी संवारने का प्रण नहीं लिया होता, तो ये भी शराब का धंधा करते। गलत काम करते। कभी स्कूल का मुंह नहीं देखते। दिहाड़ी मजदूरी करने को मजबूर होते।'
इन बच्चों में हीरबाई को अपना बचपन दिख रहा है। वे बताती हैं, ‘नवाब ने बाप-दादा को जमीनें दी थीं। जिनके पास जमीनें नहीं थीं, वो दूसरों के खेतों में काम करके गुजर-बसर करते थे। जंगल से लकड़ी काटकर लाते थे और शहरों में बेचते थे। इसी से चूल्हा जलता, घर का खर्च चलता।
किसी को पढ़ने-लिखने से कोई मतलब नहीं था। इलाके में एक भी हॉस्पिटल नहीं है। इस इलाके में दर्जनों ऐसे बच्चे होंगे, जिन्होंने पैदा होने के बाद अपनी मां को नहीं देखा होगा, क्योंकि डिलीवरी के दौरान ज्यादातर माएं बच नहीं पाती थीं।'
तस्वीर में हीरबाई के साथ सिद्दी कम्युनिटी के बच्चे हैं।
हीरबाई के पास कोई पुरानी तस्वीर नहीं है, जिसके सहारे वो अपने पापा-मम्मी, दादा-दादी को याद कर पाएं। वो कहती हैं, 'मेरी दादी भी पढ़ी-लिखी नहीं थीं, लेकिन पढ़ाई की अहमियत समझती थीं। नदी पार दूसरे गांव में स्कूल था। वो चाहती थीं कि मैं पढ़ूं, लेकिन दूसरी क्लास तक ही पढ़ पाई। 12 साल की हुई, तो पापा को कैंसर हो गया। कुछ महीने बाद उनकी मौत हो गई।'
इसके बाद मैं बुआ के यहां रहकर खेतों में काम करने लगी। दो साल बाद मेरी शादी हो गई। उस वक्त मैं 14 साल की थी। ससुराल में कोई घर नहीं था, कोई ठिकाना नहीं था। आज इस गांव में, तो कल उस गांव। कुछ साल बाद ससुर ने मुझे और पति को घर से निकाल दिया।
मैं पति के साथ मायके चली आई। हमारे समुदाय में एक चलन है कि पत्नी ससुराल में अकेले नहीं रहती, लेकिन कुछ समय बाद मैं वापस अकेले ससुराल में रहने लगी। लोगों के विरोध करने के बाद भी।'
हीरबाई अपनी कहानी कह रही हैं। साथ में उनकी पोती नरगिस हैं, जो मुझे इन सारी बातों को हिंदी में बता रही हैं।
जब मैं हीरबाई के गांव के भीतर जा रहा था, तो अधिकांश घर झोपड़ीनुमा दिखाई देते हैं। कई घरों में तो खिड़की, दरवाजे, चौखट, किवाड़... कुछ नहीं। सिद्दी समुदाय के कुछ लोग बैठकर आपस में बातचीत कर रहे हैं।
सामने कुछ बच्चे हैंडपंप पर बर्तन धो रहे हैं। पूरे इलाके में सिर छुपाने के लिए एक भी छायादार पेड़ नहीं दिखाई दे रहा है। भरी दोपहरी में लोग मजदूरी कर रहे हैं।
ये सिद्दी समुदाय के लोग हैं।
सिद्दी समुदाय की बच्चियां बर्तन मांज रही हैं।
मैंने हीरबाई से पूछा- अपने समुदाय के लोगों के लिए काम करना कैसे शुरू किया?
हीरबाई बताती हैं, 'मुझे रेडियो सुनना पसंद था। एक रोज शाम को रेडियो सुन रही थी, जिसमें खेती-किसानी पर चर्चा हो रही थी। वहीं से मैंने खेती करने, ऑर्गेनिक कंपोस्ट बनाने, पैसों की बचत करने के बारे में सीखना शुरू किया।
1995 में आगा खान फाउंडेशन से जुड़ गई। फिर लगा कि खुद के साथ-साथ कम्युनिटी के लिए भी काम करना चाहिए। मैंने सिद्दी समाज के लोगों को इसके बारे में बताया, उन्हें अवेयर करना शुरू किया। पहले इन लोगों को रहने, खाने और कपड़े पहनने तक का ढंग नहीं पता था।
दिनभर चौराहे पर बैठकर ताश-जुआ खेलते थे। यहां के लोगों को इंडियन कल्चर के मुताबिक ढालना बड़ी चुनौती थी। आप अकेले गांव में जाएंगे, तो पता नहीं कब-कौन क्या कर देगा। हो सकता है कोई हमला कर दे। यहां की महिलाएं पहले गलत काम करती थीं, लेकिन अब अपने पैरों पर खड़ी हैं। ऑर्गेनिक खाद बनाती हैं, खेतों में काम करती हैं। बच्चों को पढ़ाती हैं। इलाके में लोगों ने दुकानें खोल रखी हैं। इससे इनकी आमदनी होती है।'
ये हीरबाई की पुरानी तस्वीर है। इसमें वो अपने समुदाय के एक व्यक्ति के हाथ खाद का पैकेट दे रही हैं।
तलाला से जांबुर के लिए आने के दौरान रास्ते में आम के पेड़ दिखाई दे रहे हैं। अभी आम का मौसम भी है। हीरबाई बताती हैं, ‘पहले हमारे लोगों को पता भी नहीं था कि आम होता क्या है। इसकी खेती कैसे की जाती है। मैं फाउंडेशन के साथ जुड़कर यहां की महिलाओं को इसके बारे में बताने लगी। मैंने भी अपनी जमीन में सैकड़ों आम के पेड़ लगाए।'
हीरबाई की पोती मुझे बस्ती दिखाती हैं। कुछ महिलाएं सब्जी बेच रही हैं, तो कुछ मछली। हीरबाई बताती हैं, 'कई लोग ऐसे भी थे और आज भी हैं, जिन्हें मैं जब कहने के लिए जाती कि वे भी मेरे साथ काम करें, तो मुझे मारने के लिए दौड़ते थे, गालियां देते थे, लेकिन मैंने इन चीजों पर कभी ध्यान नहीं दिया।
धीरे-धीरे जब कुछ महिलाओं के जीवन में बदलाव दिखा, तो दूसरी महिलाएं भी जुड़ने लगीं। मैंने महिलाओं को बचत करने के बारे में समझाना शुरू किया। उनसे कहती- कमाओगी, पैसे होंगे, तो पति मार-पीट नहीं करेगा। नहीं कमाओगी, पति से पैसे मांगोगी, तो वह ऐसे ही जुल्म करेगा।'
सिद्दी समुदाय की एक महिला सब्जी रही है। इनके कस्टमर भी इसी समुदाय के लोग होते हैं।
इस इलाके में एक आंगनवाड़ी केंद्र से बच्चों के पढ़ने की आवाज आ रही है। हीरबाई कहती हैं कि पहले यहां कुछ भी नहीं था। मैंने अपने 5 साल के बेटे को पढ़ने के लिए एक रिश्तेदार के पास भेज दिया था, लेकिन रिश्तेदार बेटे से काम कराते थे। मार-पीट करते थे। वो भागकर मेरे पास आ गया। फिर मैं उसे एक-दूसरे परिचित के यहां पढ़ाने लगी।
आज वो एग्रीकल्चर कॉलेज में सरकारी नौकरी कर रहा है। मुझे याद है जब उसे एग्रीकल्चर की पढ़ाई करनी थी, तो उसने कहा था- मां पढ़ाई का खर्च कैसे उठा पाओगी। मैंने उससे बस इतना ही कहा- खून पत्थर एक कर दूंगी, लेकिन पढ़ाऊंगी तुझे।'
तस्वीर में हीरबाई के साथ उनका बेटा, बहू और पोती है।
हीरबाई बताती हैं, 'मेरे साथ जो बच्चे खाद बनाने के लिए आते थे, आज वे नेवी और आर्मी में हैं। यहां की महिलाएं स्कूलों और आंगनवाड़ी में काम कर रही हैं। जिन महिलाओं ने कभी बैंक का मुंह नहीं देखा था आज वे बैंक में पैसे जमा कर रही हैं। पहले उन्हें डर होता था कि बैंक में पैसा रखने से लूट हो जाती है।
अब इस गांव के बच्चे स्कूल जा रहे हैं। बगल में एक नया स्कूल भी खुल गया है। अब मैं सरकार से मांग कर रही हूं कि वो यहां पर एक खेल का मैदान बनाए। पढ़ने-लिखने के लिए कॉलेज, बच्चों के रहने के लिए हॉस्टल और बीमारियों से राहत दिलाने के लिए हॉस्पिटल बनवाए।'
ये आंगनवाड़ी केंद्र है, जहां सिद्दी समुदाय के बच्चे पढ़ रहे हैं।
बातचीत करने पर यहां के लोगों का ये भी दावा है कि हीरबाई ने इस समुदाय के लोगों के लिए कुछ खास काम नहीं किया है। जो भी किया, उन्होंने खुद के लिए किया। सिद्दी समुदाय के एक व्यक्ति बताते हैं- ये तो है ही, कोई पहले खुद के लिए करता है फिर दूसरों के लिए...।
वहीं, 10वीं तक की पढ़ाई करने वाला एक शख्स बताता है कि यदि इस इलाके के लिए हीरबाई ने इतना काम किया है, तो स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल... कुछ तो होना चाहिए था। एक नया स्कूल कुछ साल पहले ही बना है।
हालांकि, हीरबाई कहती हैं, 'मुझसे जो बन पड़ा वो मैंने किया, कर रही हूं। भले ही ये लोग आज न समझे, कल न समझे, लेकिन एक दिन आयेगा जब इन्हें समझना पड़ेगा कि मैं उनके लिए काम करती हू्ं। अगर जमाना बदल गया है, तो सिद्दी समुदाय की जिंदगी भी बदलेगी ही ना...।'
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