साल- 2009, तारीख- 26 फरवरी
यह मेरी जिंदगी में काले दिन के रूप में दर्ज है। 30-40 लोगों ने मुझ पर हमला कर दिया। उत्तर प्रदेश के बिजनौर का शक्ति चौराहा फायरिंग से थर्रा उठा। दुकानदार अपने दुकानों की शटर गिराकर भागने लगे। मैं निहत्था था।
5 दोस्तों ने देसी कट्टा निकालकर चेहरे पर 34 छर्रे दागे। मेरी दोनों आंखों की नस, पर्दा, कॉर्निया, पुतली... सब कुछ फट गया। दोस्तों ने ही मुझे अंधा बना दिया। उस वक्त ग्रेजुएशन पार्ट- 2 में था। मैं दलित वर्ग से ताल्लुक रखता हूं। इसलिए मेरे दोस्त मुझसे नफरत करते थे।
एम्स दिल्ली में ऑपरेशन करने के बाद डॉक्टर ने कहा- कुछ नहीं हो सकता। पूरी जिंदगी अब ब्लाइंड होकर ही जीना पड़ेगा। एक साल तक जिंदा लाश बना रहा। 3 बार सुसाइड करने की कोशिश की, लेकिन बच गया।
SBI मेन ब्रांच देहरादून में असिस्टेंट मैनेजर अनिल कुमार जैसे-जैसे अपनी कहानी में दाखिल होते हैं, शरीर में सिहरन पैदा होने लगती है। अनिल ने लव मैरेज की है, उनके तीन बच्चे हैं।
अनिल कुमार एडल्ट ब्लाइंड हैं। वो अपनी दोनों आंखों से नहीं देख सकते हैं। इसके बावजूद भी अनिल ने बैंक एग्जाम क्लियर किया।
अनिल अपनी कहानी को चार हिस्सों में सुनाते हैं...
1. पहले बचपन से कॉलेज की कहानी
पापा मजदूर थे। चीनी मिल में गन्ने की चेन बांधने का काम करते थे। 12 साल की उम्र से मैं भी उनके साथ काम करने जाता था। मुझे कबड्डी और दौड़ देखने का शौक बचपन से था। धीरे-धीरे स्पोर्ट्स में मजा आने लगा। फिजिकल फिटनेस के लिए सुबह-सुबह गांव से बाहर जाकर दौड़ता था।
जब बिजनौर के हाई स्कूल में एडमिशन लिया, तो स्पोर्ट्स कॉम्पिटिशन में पार्टिसिपेट करने लगा। ये 2002 की बात है। गांव के कुछ लड़के आर्मी की तैयारी कर रहे थे। उन्हें देखकर मैं भी आर्मी की तैयारी करने लगा। 2008 के आर्मी भर्ती का अपॉइंटमेंट लेटर मेरे हाथ में था, लेकिन तब तक मैं ब्लाइंड हो चुका था। इस वजह से मैं जॉइन नहीं कर सका।
2006 में 12वीं के बाद बिजनौर यूनिवर्सिटी में मैंने B.Com और मेरे दोस्तों ने B.A में एडमिशन ले लिया। मैं पढ़ाई और स्पोर्ट्स की हर एक्टिविटीज में आगे रहता था। मुझे जब कॉलेज के NSS कैंप का हेड बनाया गया, तो मेरे दोस्त मुझसे जलने लगे।
2. अब ब्लाइंड होने की कहानी
जो दोस्त मेरे साथ हमेशा घूमते-फिरते थे। मुझे नहीं पता था कि ये लोग मेरे खिलाफ जानलेवा षडयंत्र रच रहे हैं। 5 मार्च 2009 से पार्ट-2 का एग्जाम शुरू होना था। फरवरी महीने में एडमिट कार्ड बंट रहा था। मैं पोडियम पर खड़ा था। सामने कुछ स्टूडेंट्स बदतमीजी कर रहे थे। लाइन में खड़ी लड़कियों के साथ धक्का-मुक्की कर रहे थे।
इसी दौरान एक लड़की दीवार से टकरा गई। उसके सिर से खून आने लगा। जब मैंने धक्का-मुक्की कर रहे स्टूडेंट्स को समझाना चाहा, तो उन्होंने मेरे ऊपर ही अटैक कर दिया। मामला प्रिंसिपल के पास पहुंचा और उन्हें पुलिस के हवाले कर दिया गया। हालांकि, कुछ देर बाद ही उन स्टूडेट्स को समझा-बुझाकर पुलिस ने छोड़ दिया।
फिर मैं पोडियम के पास आ गया। इतने में मेरे एक दोस्त ने पीछे से आकर तमंचे की बट (बंदूक का पिछला हिस्सा) मेरे सिर पर मार दिया। सिर से खून बहने लगा। जब मैंने दोस्त से पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया? तो उसने कहा, 'हमलोग तो बहुत दिनों से तुम्हें टारगेट कर रहे थे, अब जाकर तुम पकड़ में आए हो।'
जब विवाद बढ़ा, तो प्रिंसिपल ने मुझे घर जाने के लिए कहा। कॉलेज के बाहर 50-60 लोग मुझ पर हमला करने के लिए इंतजार कर रहे थे। मैं किसी तरह से पीछे के गेट से डॉक्टर के पास गया। सिर पर बैंडेज लगाए घर पहुंचा, तो घरवालों ने कहा, 'अब से कॉलेज जाना बंद। भले पढ़ो नही, कम-से-कम ठीक तो रहोगे।'
कुछ दिनों के बाद दो-तीन दोस्त घर पर आए। उन्होंने कहा, 'कॉलेज नहीं जा सकते हैं, शादी में तो चल सकते हैं।' बाइक से शक्ति चौराहे के पास पहुंचते ही एक दूसरा दोस्त मुझे रोककर बातों में उलझाने लगा। कुछ देर में ही 50-60 लड़कों ने मुझे घेर लिया। सभी के हाथ में तमंचा और हॉकी स्टिक। उनमें से कुछ मेरे खास दोस्त भी थे। पहले उन लोगों ने मारपीट शुरू की।
तमंचे की फायरिंग से पूरा चौराहा गूंजने लगा। दुकानदार अपनी दुकानों के शटर गिराकर भागने लगे। भीड़ में से 5 दोस्त आगे बढ़कर मेरी जाति को लेकर भद्दे कमेंट करने लगे। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की। कहा- कॉलेज में इतना बड़ा झगड़ा भी नहीं हुआ था कि तुम लोग मेरी जान ले लो।
ट्रैफिक पुलिस भी चुपचाप खड़ी तमाशा देख रही थी। किसी ने बीच बचाव करने की कोशिश नहीं की। इतने में एक दोस्त ने पीछे से आकर सिर पर किसी वजनदार चीज से अटैक कर दिया। उसके बाद दोस्तों ने देसी कट्टे से मेरे चेहरे पर फायरिंग शुरू कर दी। गोली के 34 छर्रे दाग दिए।
मैं खून से लहूलुहान होकर छटपटाने लगा। मेरा छोटा भाई कुछ दूर स्थित एक मोबाइल सेंटर पर काम करता था। वह मुझे जिला अस्पताल ले गया। वहां से मेरठ और फिर दिल्ली एम्स रेफर किया गया। जब ऑपरेशन हुआ, तब पता चला कि मैं अपनी दोनों आंखे खो चुका हूं।
3. ब्लाइंड होने के बाद की कहानी
यहां से मेरी ब्लाइंड लाइफ शुरू हो गई। एम्स से डिचार्ज होने के बाद मुझे गांव ले जाया गया। ये पहली बार था कि जिस गांव को देखते हुए मैं बड़ा हुआ, वो मुझे देख रहा था, लेकिन मैं नहीं। कॉलेज के लोग भी मुझे देखने के लिए आए। मैं चारपाई पर लेटा था।
जब मां ने बताया कि लोग देखने आए हैं, तो मैंने बस यही कहा- 'ये दुनिया अब मेरे किसी काम की नहीं और मैं भी किसी काम का नहीं रहा।' मेरा ग्रेजुएशन बीच में ही छूट गया।
पता था कि अब मुझे किसी भी गद्दी पर बिठा दो, इस दुनिया को कभी नहीं देख सकता हूं। मैं नहीं चाहता था कि जिन लोगों ने मेरे साथ ऐसा किया, वो मेरे घर वालों के साथ भी ऐसा करें। मैंने कोर्ट से केस वापस ले लिया।
एक दिन मेरे चाचा न्यूजपेपर में लखनऊ के दृष्टिबाधित डॉ. शकुंतला मिश्रा विश्वविद्यालय के बारे पढ़ रहे थे। मैंने घर वालों से कहा- क्या अभी भी मैं पढ़ सकता हूं? मम्मी-पापा ने विश्वविद्यालय के बारे में पता करना शुरू किया।
इसी दौरान देहरादून के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ विजुअली हैंडिकैप्ड (NIVH) के बारे में पता चला। मुझे याद है कि जब NIVH आ रहा था, तो मां से कहा, 'यदि एडमिशन नहीं हुआ, तो मैं अब कभी घर नहीं लौटूंगा।' यहां किसी तरह से कंप्यूटर ट्रेनिंग में एडमिशन हो गया।
ब्लाइंड होने के बाद पहली बार मैंने कंप्यूटर टच किया था। 6 महीने तक तो कुछ समझ में ही नहीं आया कि मैं किस डायरेक्शन में बैठा हूं। टीचर क्लास में किस डायरेक्शन से बोल रहे हैं। इस दौरान एक दोस्त बना, जिसके कंधे पर हाथ रखकर चलने लगा। वो मुझे हर रोज मेस, क्लासरूम और वॉक कराने के लिए ले जाता था। 18 महीने की कंप्यूटर ट्रेनिंग के बाद भी कोई जॉब नहीं मिली।
4. आखिर में बैंकर बनने की कहानी
2011 में वापस अपने घर आ गया। सोचने लगा- 'जहां से निकला था, वहीं चला आया।' घुटन महसूस होने लगी। उसके बाद मैंने फिर से B.Com करने की ठानी। छोटी बहन खुशबू मुझे नोट्स पढ़कर सुनाती और मैं सुनकर याद कर लेता। इसी दौरान बैंकिंग एग्जाम की तैयारी करने लगा। बहन मेरी आंखें बन गई।
2012 में 12th लेवल पर मेरा सिलेक्शन तीन बैंक- SBI, केनरा और यूको बैंक में हो गया। SBI देहरादून मेन ब्रांच में मैंने जॉइन किया।
जब बैंक में आया, तो ब्लाइंड पर्सन होने की वजह से लोग अलग-अलग तरह के कमेंट करने लगे। कहते थे, ये ब्लाइंड पर्सन क्या करेगा। बिना काम के पैसे लेगा। कोटे से सिलेक्शन हो गया है।
मैंने बैंकिग के सभी सेक्शन के काम को सीखा। अब मैं अपने सारे काम बिना किसी की मदद से करता हूं। ऑफिस भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट से जाता हूं। जिन लोगों ने मुझे अंधा किया, वो आज मजदूरी भी नहीं कर सकते हैं और मैं यहां तक पहुंच गया।
आज अपना घर-परिवार है। तीन बच्चे हैं। पत्नी भी एडल्ट ब्लाइंड है। दवा के रिएक्शन की वजह से उसकी रोशनी चली गई थी। हालांकि, उसे 20% दिखाई देता है। हम दोनों NIVH में ही मिले थे। वहीं, एक-दूसरे से प्यार हुआ।
अब धीरे-धीरे जिंदगी में रंग भर रहे हैं...
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