अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में बीते जुमे के दिन यानी शुक्रवार (30 सितंबर) को एजुकेशन सेंटर में बम ब्लास्ट हुआ। हमलावरों के निशाने पर हजारा समुदाय के बच्चे थे, जो यहां एग्जाम दे रहे थे। यूनाइटेड नेशंस के मुताबिक, धमाके में 53 लोगों की मौत हो गई, जिनमें 46 लड़कियां थीं। 110 घायल भी हुए हैं।
पहले भी अल्पसंख्यक हजारा समुदाय पर हमले होते रहे हैं। 15 अगस्त 2021 को तालिबान का राज आने के बाद इस समुदाय को निशाना बनाकर कई हमले हुए हैं। इनमें 700 से ज्यादा लोग मारे गए। ज्यादातर हमले धार्मिक स्थलों, स्कूल और अस्पतालों पर हुए। अफगानिस्तान की आबादी करीब 4 करोड़ है। इनमें 40 लाख, यानी कुल आबादी के 10% हजारा हैं।
शुक्रवार को हुए हमले के विरोध में लोगों ने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किए। अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे से पहले सेना में रहीं जाहिरा शनिवार को हुए प्रोटेस्ट में शामिल थीं। तालिबान लड़ाकों ने उन्हें पकड़ लिया और बहुत पीटा। हमले में मारी गई एक लड़की के भाई को भी बुरी तरह पीटा गया।
जाहिरा पर खतरे की वजह से उनका असली नाम और पहचान छिपाई गई है।
जाहिरा को इसका अफसोस नहीं है, बल्कि इस बात का सुकून है कि तालिबान लड़ाकों ने उन्हें पहचाना नहीं। अगर पहचान लेते तो शायद वे गिरफ्तार कर ली जातीं या मार दी जातीं।
24 साल की जाहिरा हजारा समुदाय से हैं और सेना में रहने ही वजह से अब काबुल में छिपकर रहती हैं। जान के खतरे के बावजूद वे हजारा समुदाय पर हो रहे जुल्म के खिलाफ प्रोटेस्ट में हिस्सा लेने गई थीं।
हमले के बाद काज एजुकेशन सेंटर गईं जाहिरा ने बताया कि वहां का मंजर इतना खौफनाक था कि देखकर मेरा दिल दहल गया। चारों तरफ लाशें बिखरी थीं। किसी को भी पहचानना मुश्किल था। बोरियों में मांस भरकर ले जाया जा रहा था। ये भी नहीं पता चला कि कौन सा हाथ या पैर किसका है।
जाहिरा के मंगेतर बोले- हमारी जिंदगी ही खत्म हो गई
जाहिरा के मंगेतर भी अफगान सेना में थे और इन दिनों छिपकर रह रहे हैं। भास्कर से बात करते हुए वे बताते हैं- हमारी जिंदगी खत्म हो गई है। मैं घर से बाहर नहीं निकल सकता। पूरे दिन खबरें पढ़ता रहता हूं। इस इंतजार में कि कभी कोई अच्छी खबर मिले, लेकिन हजारा के बारे में सिर्फ बुरी खबरें ही आती हैं।
तालिबान लड़ाकों ने घायलों के लिए खून देने से रोका
ह्यूमन राइट्स वॉच से जुड़ीं फेरेश्ता अब्बासी के मुताबिक, हमले के बाद तालिबान लड़ाकों ने बहुत बुरा सलूक किया। घायलों के लिए खून की जरूरत थी, लेकिन लोगों को ब्लड डोनेट करने से रोक दिया गया।
हालांकि, तालिबान ने बयान जारी कर हमले की आलोचना की और हमलावरों के खिलाफ कार्रवाई करने का भरोसा दिया। उसने इस हमले को अफगानिस्तान के दुश्मनों की साजिश बताया। अफगानिस्तान के विदेश मंत्रालय ने कहा कि हमारी सरकार धर्म, नस्ल या राजनीति के आधार पर नागरिकों में भेदभाव नहीं करती। हम सभी की रक्षा के लिए जिम्मेदार हैं।
हमलों में कितने लोग मारे गए, पता नहीं चलता
पेशे से डॉक्टर सलीम जावेद स्वीडन में रहते हैं और लंबे समय से हजारा समुदाय के मुद्दों पर लिखते रहे हैं। उनके मुताबिक, तालिबान के राज में काबुल, मजार-ए-शरीफ, कंधार और हेरात में हजारा लोगों के खिलाफ छह बड़े हमले हो चुके हैं। तालिबान सरकार इंडिपेंडेंट मीडिया या एक्टिविस्ट को हमलों के बारे में रिपोर्ट नहीं करने देती। इसकी वजह से मरने वालों की सही संख्या पता नहीं चल पाती।
शुक्रवार को काबुल के एजुकेशन सेंटर पर आत्मघाती हमले के वक्त वहां 300 से ज्यादा हाई स्कूल पास स्टूडेंट प्रैक्टिस एग्जाम दे रहे थे। तालिबान ने कहा कि हमले में 25 लोग मारे गए हैं, लेकिन सही संख्या इससे कहीं ज्यादा निकली।
सलीम जावेद कहते हैं- हजारा समुदाय सरकारी नौकरियों में कहीं नहीं है। उन्हें भेदभाव झेलना पड़ता है। उनका अपहरण कर लिया जाता है। घरों से निकाल दिया जाता है और नवरोज जैसे उनके त्यौहार पूरी तरह प्रतिबंधित हैं।
इस बार एक नई बात ये हुई कि मानवाधिकार के मामलों पर अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र ने नया दूत नियुक्त किया है। उम्मीद है कि वे मानवाधिकार उल्लंघनों की जांच करेंगे।
तालिबान राज आते ही देश छोड़ा
तालिबान के दमन की वजह से बड़ी तादाद में हजारा लोग देश छोड़कर चले गए। 37 साल की समीना भी उनमें से एक हैं। वे बगराम एयरबेस पर काम करती थीं। 2020 में समीना को देश छोड़ना पड़ा। इस समय वे अमेरिका में रहती हैं।
समीना कहती हैं-मेरी जान खतरे में थी। मैं किसी भी तरह अफगानिस्तान से भागना चाहती थी। तालिबान लड़ाके मेरे पीछे पड़े थे। मैं वहां से अमेरिका आ गई और यहीं रह रही हूं। मेरा परिवार अब भी अफगानिस्तान में है और खतरे में है।
हिंसा की वजह से हजारों लोग घर से दूर
1980 के दशक में सोवियत संघ के खिलाफ हथियार उठाने वाले अकरम गिजाबी भागकर अमेरिका चले गए थे। वे अब वर्ल्ड हजारा काउंसिल के चेयरमैन हैं। उन्हें तालिबान पर बिल्कुल भरोसा नहीं है। गिजाबी कहते हैं- तालिबान बिल्कुल नहीं बदला है। वे लड़कियों और उनकी पढ़ाई के खिलाफ हैं। हजारा लड़कियां पढ़ने में आगे हैं, इसलिए सबसे ज्यादा दमन उन्हीं का हो रहा है।
हजारा लोगों के लिए मौजूदा हालात बेहद मुश्किल हैं। सर्दियां आ रही हैं और लाखों लोग भुखमरी की कगार पर हैं। हिंसा की वजह से हजारों लोगों को घर छोड़ना पड़ा। कुछ लोग घाटियों में रह रहे हैं और कुछ रिश्तेदारों के पास चले गए हैं। किसी भी तरह की मदद उन तक नहीं पहुंच रही हैं। अंतरराष्ट्रीय जगत भी हजारा लोगों की मदद नहीं कर रहा है।
गिजाबी के मुताबिक, काबुल में हजारा जिस इलाके में रहते हैं, वह काफी बड़ा है। तालिबान सरकार चाहे तो उन्हें सुरक्षा दे सकती है। अब तो उसके पास खुफिया सिस्टम भी है, लेकिन वह जानबूझकर ऐसा नहीं कर रही है। लोगों के मरने से किसी को फर्क नहीं पड़ रहा।
समुदाय के एक्टिविस्ट अपने मुद्दे उठा रहे हैं। काज एजुकेशन सेंटर पर हमले के बाद चलाए गए हैशटैग #StopHazaraGenocide के साथ 10 लाख से ज्यादा ट्वीट किए गए। दुनियाभर में हजारा लोगों ने अपने खिलाफ हो रहे जुल्म पर बात की, लेकिन एक्टिविस्ट्स को लगता है कि दुनिया ने अफगानिस्तान के हजारा लोगों की तरफ से आंखें मूंद ली हैं।
ज्यादातर हमले इस्लामिक स्टेट ने किए, पीड़ितों को मदद नहीं
ह्यूमन राइट्स वॉच से जुड़ी ब्रिजिट स्वार्ज कहती हैं- इस्लामिक स्टेट ने बीते एक साल में हजारा लोगों के स्कूलों, धर्मस्थलों और अस्पतालों को निशाना बनाया है। तालिबान ने इन हमलों को रोकने के लिए कुछ खास नहीं किया। न ही पीड़ितों को किसी तरह की मदद दी गई।
हजारा अफगानिस्तान में पठान, ताजिक और उजबेक के बाद चौथा बड़ा समुदाय है। इन्हें मंगोलों का वंशज माना जाता है। मंगोल शासक चंगेज खान के वंशज बौद्ध धर्म को मानते थे, लेकिन हजारा बौद्ध की बजाय शिया मुस्लिम हो गए। ये अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हैं।
शिया होने की वजह से उनके ईरान से भी संबंध हैं। अलग मजहब और मान्यताओं की वजह से सुन्नी मुसलमान हजारा समुदाय के खिलाफ रहते हैं। यही वजह है कि हजारा आतंकी संगठन IS और तालिबान के निशाने पर रहे हैं।
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