वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर कोर्ट में केस चल रहा है। इस बीच मथुरा में श्री कृष्ण जन्मभूमि और ईदगाह मस्जिद विवाद को लेकर एक याचिका की सुनवाई को मथुरा जिला अदालत ने मंजूरी दे दी है। याचिका में उस जमीन का मालिकाना हक हिंदू पक्ष को सौंपने की मांग की गई है, जिस पर शाही ईदगाह मस्जिद बनी है।
माना जाता है कि शाही ईदगाह मस्जिद का निर्माण 17वीं सदी में मुगल बादशाह औरंगजेब के आदेश पर कृष्ण जन्मभूमि के बगल में वहां स्थित मंदिर को नष्ट करके किया गया था।
ऐसे में चलिए जानते हैं कि क्या है कृष्ण जन्मभूमि-ईदगाह मस्जिद का विवाद? कोर्ट में इसे लेकर दाखिल हुई है कौन सी याचिका? याचिककर्ता कर रहे हैं क्या मांग?
मथुरा कोर्ट ने दिया कौन सा आदेश?
मथुरा जिला और सेशन कोर्ट ने श्री कृष्ण जन्मभूमि के पास बनी ईदगाह मस्जिद की भूमि के मालिकाना हक वाली याचिका सुनवाई के लिए स्वीकार कर ली है। याचिका को मंजूरी देने वाले डिस्ट्रिक्ट जज राजीव भारती हैं।
श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट और अन्य निजी पक्षों ने याचिका में अपील की है कि ईदगाह मस्जिद को हटाकर भूमि का मालिकाना हक उन्हें सौंपा जाए। ईदगाह मस्जिद श्रीकृष्ण जन्मभूमि के बगल में बनी है, जिसे भगवान कृष्ण की जन्मस्थली माना जाता है। ये पूरा विवाद 13.37 एकड़ की उस भूमि को लेकर है, जिसके बारे में याचिकाकर्ताओं का दावा है कि ये भगवान श्रीकृष्ण विराजमान से संबंधित है।
याचिका को पहले निचली अदालत ने सितंबर 2020 में खारिज कर दिया था और फिर इस मामले में जिला जज के सामने रिवीजन पिटीशन दायर की गई थी। अब इस दीवानी मुकदमे की सुनवाई निचली अदालत करेगी।
राजस्व रिकॉर्ड देखने के अलावा, अदालत को मंदिर प्रबंधन प्राधिकरण-श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान और मस्जिद ईदगाह ट्रस्ट के बीच 1968 के समझौते की वैधता भी तय करनी होगी। इस समझौते में मंदिर प्राधिकरण ने भूमि के विवादास्पद हिस्से को ईदगाह को दे दिया था।
विवाद को लेकर अब तक कौन से मुकदमे हुए हैं?
इस विवाद को लेकर मथुरा की स्थानीय अदालतों में कम से कम एक दर्जन केस फाइल हो चुके हैं। इन सभी याचिकाओं में एक आम मांग 13.37 एकड़ के परिसर से शाही ईदगाह मस्जिद को हटाए जाने की है। ये मस्जिद कटरा केशव देव मंदिर के पास स्थित है। माना जाता है कि भगवान कृष्ण का जन्म इसी मंदिर परिसर में हुआ था।
याचिकाओं की अन्य अपीलों में वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद की तरह ईदगाह मस्जिद का भी सर्वे कराए जाने और वहां पूजा का अधिकार दिए जाने की मांग शामिल है।
वहीं इलाहाबाद हाईकोर्ट एडवोकेट महक माहेश्वरी की उस जनहित याचिका की सुनवाई भी कर रहा है, जिसमें शाही ईदगाह मस्जिद को सरकार द्वार अधिग्रहित किए जाने की मांग की गई है। इस PIL को शुरू में सुनवाई के लिए वकील के उपस्थित न होने की वजह से खारिज कर दिया था, लेकिन बाद में चीफ जस्टिस राजेश बिंदल और जस्टिस प्रकाश पडिया की बेंच ने इस याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया। इस पर अगली सुनवाई 25 जुलाई को होने की संभावना है।
एक अलग मामले में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 12 मई को मथुरा के सिविल जज (सीनियर डिवीजन) को कृष्ण जन्मभूमि मुद्दे पर मामलों का चार महीने के अंदर फैसला करने का निर्देश दिया।
जस्टिस सलिल कुमार राय मनीष यादव की उस याचिका की सुनवाई कर रह रहे थे, जिन्होंने खुद को देवता का निकटतम रिश्तेदार होने का दावा किया है। मनीष ने अपनी याचिका में शाही ईदगाह मस्जिद परिसर में प्रवेश पर अस्थाई रोक लगाने की मांग की है।
ईदगाह मस्जिद साल 1670 में औरगंजेब ने बनवाई थी। याचिकाकर्ताओं ने दावा किया है कि मस्जिद को श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर बनाया गया है। उन्होंने इसे वहां से हटाने की मांग की है।
जिस याचिका पर आदेश जारी हुआ उसमें क्या मांग की गई है?
2020 में लखनऊ की वकील रंजना अग्निहोत्री ने छह अन्य लोगों के साथ मिलकर सिविल कोर्ट में एक याचिका डाली थी। याचिका में शाही ईदगाह मस्जिद को मंदिर परिसर से हटाने की मांग की गई थी। रंजना ने श्रीराम जन्म भूमि पर भी एक किताब लिखी है। उन्होंने श्री कृष्ण विराजमान के परिजन की ओर से यह मुकदमा करने का दावा किया।
याचिकाकर्ताओं ने अपने तर्क में कहा है कि जिस मूल कारागार, यानी जेल में भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था वह ईदगाह मस्जिद मैनेजमेंट कमेटी की ओर से बनाए गए कंस्ट्रक्शन के नीचे स्थित है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि खुदाई के बाद कोर्ट के सामने सही तथ्य सामने आ सकेगा।
कुछ स्थानीय वकील भी मामले में याचिकाकर्ता के रूप में शामिल हुए हैं। इसमें मंदिर ट्रस्ट और शाही ईदगाह को याचिका का जवाब देने के लिए पक्षकार बनाया गया है।
सितंबर 2020 में जज छाया शर्मा ने सुनवाई के आधार पर याचिका को खारिज कर दिया था। जज ने कहा था कि अग्निहोत्री और अन्य याचिकाकर्ताओं के पास ठिकाना नहीं था और जब मंदिर प्रबंधन प्राधिकरण पहले से मौजूद है, तो वे देवता के निकटतम परिजन नहीं हो सकते।
कोर्ट ने यह भी कहा कि मंदिर और शाही ईदगाह के बीच 1968 में समझौता हुआ था, जिसे बाद में अदालत के एक फरमान के जरिए औपचारिक रूप दिया गया था।
1968 में एक समझौता हुआ था। इसके तहत मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थान मंदिर और ईदगाह मस्जिद के बीच में दीवार बना दी गई थी।
विवादित भूमि पर है किसका अधिकार?
शाही ईदगाह मस्जिद का निर्माण 1670 में औरंगबेज ने कराया था। माना जाता है कि इस मस्जिद का निर्माण एक पुराने मंदिर की जगह कराया गया था। इस इलाके को नजूल भूमि यानी गैर-कृषि भूमि माना जाता है। इस पर पहले मराठों और बाद में अंग्रेजों का आधिपत्य था।
1815 में बनारस के राजा पटनी मल ने 13.37 एकड़ की यह भूमि ईस्ट इंडिया कंपनी से एक नीलामी में खरीदी थी, जिस पर ईदगाह मस्जिद बनी है और जिसे भगवान कृष्ण का जन्म स्थान माना जाता है।
राजा पटनी मल ने ये भूमि जुगल किशोर बिड़ला को बेच दी थी और ये पंडित मदन मोहन मालवीय, गोस्वामी गणेश दत्त और भीकेन लालजी आत्रेय के नाम पर रजिस्टर्ड हुई थी। जुगल किशोर ने श्रीकृष्ण जन्म भूमि ट्रस्ट नाम से एक ट्रस्ट बनाया, जिसने कटरा केशव देव मंदिर के स्वामित्व का अधिकार हासिल कर लिया।
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि 1968 का यह समझौता धोखाधड़ी से किया गया था और कानूनी रूप से वैध नहीं है।
1968 में हुआ समझौता क्या था?
1946 में जुगल किशोर बिड़ला ने जमीन की देखरेख के लिए श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट बनाया था। साल 1967 में जुगल किशोर की मृत्यु हो गई। कोर्ट के रिकॉर्ड के अनुसार, 1968 से पहले परिसर बहुत विकसित नहीं था। साथ ही 13.37 एकड़ भूमि पर कई लोग बसे हुए थे।
1968 में ट्रस्ट ने मुस्लिम पक्ष से एक समझौता कर लिया। इसके तहत शाही ईदगाह मस्जिद का पूरा मैनेजमेंट मुस्लिमों को सौंप दिया। 1968 में हुए समझौते के बाद परिसर में रह रहे मुस्लिमों को इसे खाली करने को कहा गया। साथ ही मस्जिद और मंदिर को एक साथ संचालित करने के लिए बीच दीवार बना दी गई। समझौते में यह भी तय हुआ कि मस्जिद में मंदिर की ओर कोई खिड़की, दरवाजा या खुला नाला नहीं होगा। यानी यहां उपासना के दो स्थल एक दीवार से अलग होते हैं।
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि 1968 का यह समझौता धोखाधड़ी से किया गया था और कानूनी रूप से वैध नहीं है। उन्होंने कहा कि किसी भी मामले में देवता के अधिकारों को समझौते से खत्म नहीं किया जा सकता है, क्योंकि देवता कार्यवाही का हिस्सा नहीं थे।
एक देवता के अधिकार क्या हैं?
भारतीय कानून के मुताबिक, एक देवता को प्राकृतिक व्यक्ति के बजाय एक न्यायिक व्यक्ति माना जाता है। देवी-देवताओं को संपत्ति अर्जित करने, बेचने, खरीदने, ट्रांसफर करने और कोर्ट केस लड़ने समेत सभी कानूनी अधिकार होते हैं। कानून में देवता को नाबालिग जैसा माना गया है और कोर्ट में वह पुजारी के माध्यम से अपना केस लड़ सकते हैं। हिंदुओं के देवी-देवताओं को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत संपत्ति के अधिकार मिलते हैं।