28 मई 1953 की बात है। माउंटेनियर्स एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोर्गे ने एवरेस्ट की चढ़ाई शुरू की। दिनभर की चढ़ाई के बाद 27,900 फीट की ऊंचाई पर पहुंचे। इस दौरान तेज बर्फीली हवाएं चल रही थीं। पारा माइनस 35 डिग्री था।
ऐसा लग रहा था कि शरीर का हिस्सा गलकर अलग हो जाएगा। इसी रात को कैंप में हिलेरी के जूते पैर से खुल गए। अगली सुबह जब वे उठे तो मौसम तो साफ हो गया था, लेकिन उनके पैर बर्फ में जमे हुए थे।
आगे की चढ़ाई के लिए जूते खोलने में उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ी। दोनों ने सुबह 6:30 बजे चढ़ाई शुरू की। 29 मई 1953 को सुबह 11:30 बजे वे दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर पहुंच गए
आज भास्कर एक्सप्लेनर के इतिहास में हम जानेंगे एवरेस्ट पर चढ़ाई की कोशिशों और पहले सफल अभियान के बारे में-
1852 में जॉर्ज ‘एवरेस्ट’ ने ऊंचाई नापी और उन्हीं का नाम दे दिया गया
माउंट एवरेस्ट एशिया के महान हिमालय श्रृंखला के शिखर पर है। यहां का वातावरण बेहद ठंडा (तापमान करीब -37 डिग्री) और मौसम उससे भी अधिक बदलाव वाला है। नेपाल और तिब्बत के बॉर्डर पर खड़े इस दुनिया के सबसे ऊंचे पहाड़ की ऊंचाई सबसे पहले अंग्रेजों ने 1852 में नापी।
चूंकि देश अंग्रेजों का गुलाम था इसलिए माउंट एवरेस्ट भी ब्रिटिश हुकूमत के अधीन था। साल 1852 में अंग्रेजों ने हिमालय के पहाड़ों का एक सर्वे कराया। इसे ग्रेट ट्रिगोनोमेट्रिकल सर्वे ऑफ इंडिया कहा गया। इस सर्वे टीम ने अनुमान लगाया और बताया कि एवरेस्ट की ऊंचाई 29,002 फीट है।
तेनजिंग और हिलेरी ने एवरेस्ट पर चढ़ने का यही रास्ता अपनाया था जो तस्वीर में बैंगनी रंग में दिखाया गया है।
इस ट्रिगोनोमेट्रिकल सर्वे टीम के एक पुराने लीडर थे जॉर्ज एवरेस्ट। इनके नाम पर एवरेस्ट का नाम रख दिया गया। बाद में तेनजिंग के एवरेस्ट फतह के बाद इसका नाम बदल कर माउंट तेनजिंग करने का बहुत दबाव बना, मगर नाम नहीं बदला जा सका।
1921 में पहली बार एवरेस्ट को फतह करने की कोशिश हुई
तेनजिंग और हिलेरी के एवरेस्ट फतह से पहले 13 देशों के 1200 से भी अधिक माउंटेनियर्स ने एवरेस्ट पर चढ़ने की कोशिश की थी, मगर आस-पास की चोटियों तक ही पहुंच सके। एवरेस्ट पर चढ़ने की पहली कोशिश जो रिकॉर्ड में है वो 1921 में की गई।
अंग्रेजों के एक ग्रुप ने लगभग 400 मील की यात्रा करके एवरेस्ट के पास पहला बेस कैंप बनाया था। यहां बहुत तेज तूफान आया और उन्हें चढ़ाई रद्द करनी पड़ी। हालांकि पहली बार चढ़ाई पर निकले जॉर्ज मैलोरी को यह पता चल गया था कि एवरेस्ट पर जाने का आसान रास्ता क्या है।
माउंटेनियर जॉन नोएल 1924 में अपने कैमरे के साथ करीब 23,000 फीट की ऊंचाई पर।
साल 1924 में एडवर्ड नाम के एक माउंटेनियर ने बिना ऑक्सीजन 28,128 फीट तक चढ़ाई कर ली, मगर 1000 मीटर पहले ही लौट आया। एडवर्ड के लौटने के चार दिन बाद मैलोरी अपने एक सहयोगी के साथ चढ़ा और फिर उसका पता नहीं चला।
बाद में साल 1999 में मैलोरी का शव एवरेस्ट पर ही मिला। गिरने से उसकी हड्डियां टूट गई थीं। वहीं उसके साथी का आज तक पता नहीं चल सका।
शेरपा की मदद के बिना एवरेस्ट पर चढ़ना असंभव
इस चढ़ाई में माउंटेनियर्स की मदद करते थे शेरपा। शेरपा एक समुदाय है जो नेपाल और तिब्बत की दुर्गम पहाड़ियों वाले इलाके में रहते हैं और एवरेस्ट ट्रैकिंग में लोगों की आज भी मदद करते हैं। तेनजिंग भी इसी बिरादरी से आते थे।
शेरपा का मतलब होता है 'पूरब के लोग'। माना जाता है कि इन लोगों का मूल निवास तिब्बत था, जो कुछ सौ साल पहले नेपाल और दूसरे इलाकों में आकर बस गए। शेरपा दुर्गम पहाड़ों पर चढ़ने में महारत रखते हैं इसलिए ये गाइड की भूमिका में भी रहते हैं।
साल 1949 से पहले तक तिब्बत के रास्ते ही एवरेस्ट पर चढ़ा जा सकता था। यह इलाका शेरपाओं का था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया भर के माउंटेनियर्स में एवरेस्ट फतह करने की होड़ लग गई।
1949 में नेपाल ने बाहरी दुनिया के लिए अपना दरवाजा खोल दिया और 1950-1951 में ब्रिटेन ने सरकारी तौर पर कई अभियान चलाए और नए रास्ते खोज निकाले।1952 में खुम्बू आइसफॉल को खोजा गया।
इस अभियान के तहत खुम्बू आइसफॉल की तरफ से रेमंड लैम्बर्ट नाम के शख्स के साथ तेनजिंग शेरपा पहली बार एवरेस्ट पर चढ़े। वो 28,210 फीट तक पहुंचे, लेकिन ऑक्सीजन की कमी के कारण उन्हें वापस लौटना पड़ा। तेनजिंग को सात अलग-अलग अभियानों के साथ एवरेस्ट चढ़ने का मौका मिला और वो सातवीं बार में सफल हो सके।
खुम्बू ग्लेशियर पर लगाया गया बेस कैंप। इस कैंप के पीछे लिंगट्रेन की चोटी है जो बर्फबारी में पूरी तरह ढंक चुकी है।
दरअसल, तब तकनीक इतनी विकसित नहीं थी और अपना भारी भरकम ऑक्सीजन सिलेंडर साथ लेकर चढ़ना पड़ता था। इसके बाद से तेनजिंग शेरपा की कहानी शुरू हुई। तेनजिंग हिमालय की गोद में ही पले-बढ़े एक शख्स थे।
तेनजिंग शेरपा का बचपन भी याकों के विशाल झुंड की रखवाली में बीता। पहाड़ों की ढलानों पर याकों को वो 18000 फीट तक लेकर चले जाते थे। एवरेस्ट को तब शोभो लुम्मा कहा जाता था। उस वक्त एक कहावत थी, ‘मि-ति गु-ति चा-पु लॉन्ग-न्गा’। इसका मोटे तौर पर अनुवाद ये है कि "आप इसकी चोटी को नौ दिशाओं से ही देख सकते हैं क्योंकि दसवीं दिशा से देखने की कोशिश करने वाला पक्षी अगर ऊंचा उड़ा तो अंधा हो जाता है।"
अकेले में याक के साथ बचपन बिताने वाले तेनजिंग को यह कहावत बहुत परेशान करती थी। वो मन ही मन एवरेस्ट पर चढ़ने का सपना देखने लगे। तेनजिंग को पहला मौका 1935 में अंग्रेजों ने दिया, तब उनकी उम्र 21 साल थी। काम था ट्रैकिंग पर आए लोगों का भारी सामान नीचे के कैंप से ऊपर के कैंप तक ले जाना। पहाड़ों पर सामान लाद कर चढ़ने का वो उनका पहला अनुभव था।
बेस कैंप पर हिलेरी के साथ शेरपा तेनजिंग
तेनजिंग इसके बाद कई दलों के साथ गए। दस सालों के भीतर करीब पांच बार अलग-अलग दलों के साथ एवरेस्ट चढ़ने के बाद उन्हें रस्सी और कुल्हाड़ी का प्रयोग करना आ गया था। तेनजिंग को सबसे आसान रस्ता और उपकरणों का प्रयोग पता चल गया था।
अब एवरेस्ट फतह करने की 3 महीने की कहानी
तेनजिंग और एडमंड हिलेरी की जोड़ी ने 10 मार्च से चढ़ाई शुरू की।
साल 1953 में तेनजिंग को मौका मिला कि वह अपने बचपन का सपना पूरा कर सकें। उन्हें एक ब्रिटिश माउंटेनियर्स की टीम से जुड़ने का मौका मिला। इस टीम के लीडर कर्नल हंट थे। इस दल में कुछ अंग्रेज और दो न्यूजीलैंड के माउंटेनियर थे। जिनमें से एक एडमंड हिलेरी भी थे।
जॉन हंट (बीच में), एडमंड हिलेरी के साथ शेरपा तेनजिंग (दाएं)।
कर्नल हंट पूरी तैयारी में जुटे और अपनी टीम के साथ लगभग दो महीने तक प्रैक्टिस करते रहे। सुबह उठ कर पत्थरों का बोरा भरकर उसे लेकर पहाड़ों पर ऊपर नीचे चढ़ने उतरने की प्रैक्टिस करते। इसके बाद तय हुआ कि 10 मार्च 1953 को टीम नेपाल के रास्ते दो हिस्सों में आगे बढ़ेगी।
पहली टीम में 150 शेरपा यानी हेल्पिंग हैंड होंगे और दूसरी टीम 11 मार्च को 200 शेरपाओं के साथ रवाना होगी। एवरेस्ट के पहले बेस कैंप तक 350 से अधिक लोगों की टीम गई जिसमें माउंटेनियर हिलेरी समेत टीम लीडर कर्नल हंट शामिल थे।
हंट ने योजना बनाई थी कि तीन बार में दो-दो माउंटेनियर जाएंगे। यदि फिर भी एवरेस्ट पर नहीं चढ़ पाए तो अपने बेस कैंप आइसफॉल पार्टी पर वापस आएंगे और फिर से तैयारी शुरू करेंगे।
पूरी टीम 12 अप्रैल 1953 को अपने बेस कैंप आइसफॉल पार्टी पर पहुंची। यह जगह 17,900 फीट (5455 मीटर) पर थी। शेरपाओं ने यहां तक जितना सामान पहुंचाया, उसका कुल भार 1 टन बताया जाता है।
यहां से तय हुआ कि टीमें धीरे-धीरे ऊपर की ओर कैंप लगाएंगीं और रुक-रुक कर आगे बढ़ा जाएगा। पहले कैंप से निकलने के तीन दिन बाद दो टीमें साथ बढ़ेंगी। पहली टीम थी टॉम बोर्डिलॉन और चार्ल्स इवांस की और दूसरी जोड़ी थी हिलेरी और तेनजिंग शेरेपा की।
सातवां कैंप लगाने में एक महीने का समय लग गया
हिलेरी और तेनजिंग ने साउथ कैंप से चढ़ाई शुरू की और 15 अप्रैल को 19,400 फीट (5,900 मीटर) पर दूसरा कैंप लगाया गया। दरअसल कैंप धीरे-धीरे ऊपर की तरफ लगाए जाते रहे ताकि लौटने की स्थिति में ज्यादा नीचे न आना पड़े।
खूम्बु आइसफॉल बेस कैंप पर कर्नल जॉन हंट के साथ शेरपाओं की तस्वीर।
यहां से मौसम और बर्फबारी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सातवां कैंप लगाने में उन्हें एक महीने का समय लग गया। 17 मई को टीम के दो माउंटेनियर ने 24,000 फीट (7,300 मीटर) पर सातवां कैंप लगाया और फिर 21 मई को तेनजिंग की टीम ने 26,000 फीट (7,300 मीटर ) पर आठवां और आखिरी कैंप लगाया।
ल्होत्से फेस की तलहटी में 6,500 मी. पर चौथे एडवांस बेस कैंप की तस्वीर।
टीम लीडर हंट ने टॉम बॉर्डिलन और चार्ल्स इवांस की टीम को पहले चढ़ाई के लिए चुना। 26 मई की सुबह जब इस टीम ने चढ़ाई शुरू की तो लगभग चार घंटे बाद दोपहर 1 बजे 28,700 फीट (8,750 मीटर) तक पहुंच गए।
वो लगभग पहुंचने ही वाले थे कि उनमें से एक का ऑक्सीजन मास्क का वॉल्व टूट गया और इसे ठीक करने में एक घंटे का समय लगा। मगर तब तक लगातार ऑक्सीजन की कमी से चढ़ना दूभर हो गया और उन्हें निराश होकर लौटना पड़ा।
साल 1924 में ली गई एवरेस्ट की एक तस्वीर।
अब बारी थी तेनजिंग और हिलेरी की। तेनजिंग और हिलेरी ने 28 मई की रात कैंप में बिताई और अपनी पहली चढ़ाई 29 मई को शुरू की। घर से निकलते वक्त उनकी बेटी नीमा ने उन्हें एक पेंसिल दी थी। साथ ही उनके एक दोस्त ने राष्ट्रीय ध्वज दिया था। चढ़ाई पर निकलते वक्त तेनजिंग के पास संयुक्त राष्ट्र संघ, ग्रेट ब्रिटेन, नेपाल और भारत के चार झंडे थे जो उनकी कुल्हाड़ी में मजबूती से लिपटे हुए थे।
हालांकि तेनजिंग साल 1952 में यहां तक आ चुके थे, मगर लड़ाई इससे ऊपर जाने की थी। हंट के निर्देश के बाद तेनजिंग और हिलेरी ने 29 मई की सुबह 6:30 बजे कैंप छोड़ दिया, मगर तेनजिंग के पैर उनका साथ कम दे रहे थे।
एडमंड हिलेरी और शेरपा तेनजिंग नोर्गे उपकरणों से लदे अपने अंतिम कैंप (8,534 मीटर) से आगे बढ़ते हुए। तस्वीर उनकी सहायता टीम के एक सदस्य अल्फ ग्रेगोरी ने ली थी।
दरअसल बीती रात 28 मई को बर्फीली हवाओं में कैंप के भीतर सोते वक्त तेनजिंग ने अपने जूते कैंप के बाहर उतार दिए थे। बाद में उन्होंने इसे आदत का हिस्सा बताया था, मगर उस दिन सुबह तक उनके पैरों में जान नहीं बची थी।
सुबह निकलने से पहले तेनजिंग ने सुरक्षा और बर्फीली हवाओं से बचने के लिए तीन प्रकार के मोजे पहने। शुरू में थोड़ी दिक्कत हुई, मगर बचपन से पहाड़ों में ही रहे तेनजिंग ने एक घंटे में 1,000 फीट (300 मीटर) की चढ़ाई पूरी कर ली।
तेनजिंग और हिलेरी ने 28,000 फीट (8,500 मीटर) पर लगभग नौ बजे पहुंचने के बाद थोड़ी देर रुक कर आराम किया और आखिरी के लगभग एक हजार मीटर की चढ़ाई शुरू की।
29 मई को साढ़े 11 बजे हिलेरी और तेनजिंग दुनिया के शिखर पर थे
जब केवल 300 फीट और चढ़ना बाकी था तो एक बड़ी समस्या सामने आ गई। यहां एक संकरी और सीधी खड़ी चट्टान थी। तेनजिंग ने हिलेरी को बताया कि इसके अलावा जो रास्ता है वो बहुत मुश्किल और जानलेवा साबित हो सकता है। यानी यह चट्टान पार करना लगभग जरूरी था।
चांग ला की ढलान पर रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ने की कोशिश करता एक माउंटेनियर ग्रुप। साल- 1924
यहां हिलेरी और तेनजिंग ने थोड़ी देर आराम किया और फिर अपने बैग से रस्सी निकाली। दोनों ने 30 फीट की रस्सी के सिरों को पकड़ा और आगे-पीछे होकर चढ़ना शुरू कर दिया। फिसलन भरी बर्फ पर स्टिक और रस्सी के सहारे चढ़ते हुए धैर्य के साथ दोनों आगे बढ़े।
दोनों लगभग 15 मिनट और चढ़े और पाया कि वो दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर पर हैं। घड़ी में 11:30 बज रहे थे।
एवरेस्ट के शिखर पर चार देशों के झंडे के साथ तेनजिंग शेरपा
तेनजिंग रो पड़े और उन्हें हिलेरी ने संभाला। उन्होंने बैग से झंडे निकाले, बर्फ में गाड़ा। इसके बाद बेटी की दी हुई पेंसिल भी बर्फ में खोंस दी। कुछ तस्वीरें खिंचवाई और भगवान को धन्यवाद दिया।
माउंट एवरेस्ट के ऊपर से पश्चिम दिशा की ओर की यह तस्वीर हिलेरी ने ली थी। इसमें वेस्ट रोंगबुक ग्लेशियर नीचे दाईं तरफ देखा जा सकता है।