राजनीति में अपराधियों की पैठ को रोकने के लिए जाने कब से बहस चल रही है। कितने ही प्रयास हो चुके, लेकिन कोई भी राजनीतिक पार्टी इस तरफ़ कोई विचार नहीं करना चाहती। कोई निर्णय नहीं लेना चाहती। दरअसल, लुभावनी घोषणाओं और गगनचुंबी वादों के साथ- साथ इन पार्टियों को दबंग और करोड़पति प्रत्याशियों की भी दरकार रहती है। अगर आज के संदर्भ में बिना लाग- लपेट के कुछ कहा जाए तो सार यह सामने आता है कि राजनीति अब डर और पैसे के दंभ का व्यवसाय हो गया है।
एक जमाना था जब एक धोती- कुर्ता में लोग चुनाव लड़ लेते थे और जीत भी ज़ाया करते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। लोकसभा और विधानसभा तो छोड़िए, नगर निगम का चुनाव लड़ने में भी अब करोड़ों फूंक दिए जाते हैं। एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ( एडीआर) के आँकड़ों के अनुसार कर्नाटक में जो चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें खड़े कुल 2615 प्रत्याशियों में राष्ट्रीय पार्टियों के 790, राज्य स्तरीय पार्टियों के 255, रजिस्टर्ड पार्टियों के 640 और 901 निर्दलीय प्रत्याशी हैं।
ADR के अनुसार कर्नाटक में जो चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें राष्ट्रीय पार्टियों के 790 प्रत्याशी हैं।
ये तो हुए पार्टी स्तर के आँकड़े, चौंकाने वाले आँकड़े आगे हैं। इनके अनुसार 581 यानी लगभग 22% प्रत्याशी ऐसे हैं जिनके ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनके अलावा 404 यानी सोलह प्रतिशत प्रत्याशी तो ऐसे भी हैं जिनके ख़िलाफ़ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। राजनीतिक पार्टियों को चुनाव जीतने और सत्ता में आने के अलावा कुछ सूझता ही नहीं है। भले ही उसका रास्ता कहीं से भी निकलकर आता हो! चाहे जेल से आता हो, चाहे अपराध की खूनी गलियों से गुजरता हो! चुनाव में पैसे का ज़ोर देखिए, लगभग 42 प्रतिशत यानी 1087 उम्मीदवार करोड़पति हैं।
यह तस्वीर 2 मई की है, कांग्रेस ने कर्नाटक चुनाव को लेकर अपना घोषणा पत्र जारी किया।
एडीआर ने यह विश्लेषण उन आधिकारिक शपथ पत्रों के अध्ययन से किया है जो हर उम्मीदवार अपने नामांकन के साथ देता है। जब तक राजनीति में अपराधियों के आने पर रोक नहीं लगाई जाती, आम आदमी की सद्इच्छाओं या ज़रूरतों के साथ न्याय की उम्मीद करना बेमानी है, क्योंकि जो खुद ही अपराधों में लिप्त रहा हो, उससे दया या करुणा के साथ लोगों की परेशानियों को हल करने, उनका निवारण करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
ऐसा नहीं है कि इस देश में करोड़पति, बाहुबली या दबंग लोग ही चुनाव जीत सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि गरीब या वाक़ई लोगों का भला चाहने वालों में चुनाव जीतने की हिम्मत ही नहीं है! लेकिन राजनीतिक पार्टियाँ किसी न किसी तरह चुनाव जीतना चाहती हैं। तरीक़ा चाहे जो भी हो। सब के सब नंबर गेम में उलझे हुए हैं। …और जिसके पास नंबर है, सत्ता भी उसी के हक में जाती है।